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भाईचारा

​रजत रानी 'मीनू'

मिसिज सुरेश मिश्रा के फोन के बाद तो गीतांजलि की हालत खराब थी। वह उनर झल्लाई कि ‘भाईचारा अपार्टमेंट’ के प्रेसीडेंट एवं सेक्रेटरी आनंद माथुर को अपना फ्लैट किराए पर देने की अनुम पर ही बिगड़ने लगी कि आप उस चमारिन को मेरे घर लेकर ही क्यों आयीं ? यह तो सब गड़बड़ हो गया। आज दोपहर का खाना मैंने नहीं खाया था।अब खाना तो दूर, मैं अपने घर को शुद्ध कैसे करूँ? इस असमंजस की स्थिति में घर में कोई काम करने में उसका मन नहीं लग रहा था।वह पुनः स्वयं पति ही क्यों दी? हाँ, देनी भी थी तो कम से कम इतना तो जानना ही चाहिए कि यह सोसाइटी पढ़े-लिखे और सभ्य लोगों की है। इसलिए नहीं के जिसे चाहे दे दो। भंगी-चमार, धोबी कोई भी हमारे साथ रहे। यहाँ हम सब कितना मिल-जुल कर रह रहे थे। हर तीज-त्यौहार और अन्य ख़ुशी के अवसरों पे संयुक्त परिवार जैसा माहौल हो जाता था। भाईचारा हमारे अपार्टमेंट की खास विशेषता है, इसलिए तो सोच-समझ कर इसका यह नाम रखा है।

 

वह फिर सोचने लगी–अच्छा हुआ मीडिया में ये चमार,भंगी नहीं हैं। यदि ये लोग होते तो हमारे अपार्टमेंट का स्थाई मेम्बर कोई न कोई भंगी-चमार और खटीक भी अवश्य होता। जीवन-भर ये हमारे सर पर चाढ़कर रहते। तब हम तो कहीं के नहीं रहते। गीतांजलि का खाली दिमाग तरह-तरह से सोचकर परेशान हो रहा था। तभी उसने अपने पति दीपांशु पाठक से बात करने के इरादे से दैनिक अखबार ‘अपना भारत’ को फोन मिलाया। वह वहाँ अंतिम पाली में जल्दी-जल्दी ‘जनगणना में जाति का औचित्य शीर्षक से मुख्य आलेख लगा रहा था। फोन पर गीतांजलि की घबराई सी आवाज सुनकर बोला– 

 

“हलो ! क्या बात है गीते!” वह उसे प्यार से गीते ही बुलाता था– “अच्छा किया गीते तुमने फोन कर लिया। इधर से मैं भी ट्राय कर रहा था। आजकल देश में रिजर्वेशन से आये हुए लोगो ने बहुत अशांति फैला रखी है।टाइमस एक राय लेना चाहता था।”

 

गीतांजलि ने दीपांशु की बात काटते हुए कहा–“इस वक्त तुम जल्दी घर आ जाओ। मैं अभी कुछ राय-वाय देने की स्थिति में नहीं हूँ।”

 

“क्यों एसी क्या बात हो गयी।तुम्हारी तबियत तो ठीक है? क्या किसी ने कुछ…”

 

“ऐसा कुछ नहीं हुआ, जो हुआ वो मैं तुम्हें फोन पर नहीं बता सकती। तुम बस जल्दी घर आ जाओ।”

 

यह कहते हुए उसने फोन का रिसीवर रख दिया, और दीपांशु का इंतजार करने के इरादे से जैसे ही टी। वी का स्वीच ऑन करके सोफा चेयर पर बैठने लगी, तभी उसे लगा वहाँ नीता के रूप में उसके गाँव में सफाई का काम करने वाली चमार और भांगिन जाति की औरतें छन्नो और तारावती बैठी हैं। उसे नीता की साफ-सुथरी व्यवस्थिति ढंग से पहनी हुई पोशाक भी छन्नो और तारावती के मैले-कुचैले कपड़ों जैसी लगी। गीतांजलि के मस्तिष्क में छन्नो और तारावती की शक्लें डगमग होने लगीं। ठीक उसी तरह जिस तरह एक सोता हुआ व्यक्ति स्वप्न देखता है। स्वप्न में कहीं का प्रसंग कहीं जुड़ जाता है। लगभग वही स्थिति गीतांजलि की हो रही थी। उसे लगा नीता के कपड़ों से बदबू आ रही है। उसके सोचने के साथ उसके मन की बदबू बढ़ती गयी। उसने दुपट्टे से अपनी नाक ढक ली थी, जैसे सचमुच वहाँ बदबू आ रही हो। घर के एक कोने में रखे उस डंडे को उठा लायी जो उसने रात-बिरात में सुरक्षा की दृष्टि से अपने पलंग के पास रखा हुआ था। आज वह डंडा सचमुच गीतांजलि के काम आया था। उस डंडे से सोफे पे रखी गद्दियाँ व कुशन को नीचे गिरा दिया था और उसी डंडे से खुचेड़ कर सारी गद्दियाँ व कुशन बालकोनी के कोने में खिसका दिये थे। फिर स्वयं ड्राइंग रूम में बिछे मोटे गद्दे पर धम्म से बैठ गयी, जैसे उसने संक्रामक बीमारी के कपड़ों को कमरे से निकाल कर राहत की साँस ली हो, ताकि घर संक्रामक रोगों से मुक्त रहे। एक बार उसे उल्टी आने को हुई। वह भागते हुए वॉश बेसिन की तरफ बढ़ी, किंतु उल्टी गले से ऊपर नहीं आयी।

 

दस मिनट बाद दीपांशु की कार की आवाज गीतांजलि को सुनायी पड़ी। दरवाजे की घंटी बजने से पहले ही वह दरवाजा खोल कर खड़ी थी। दीपांशु गीतांजलि को देखकर बोला– “हाँ, क्या बात थी…” छोटे ब्रीफकेस को उसने गीतांजलि की तरफ बढ़ाते हुए उसने पूछा। “पहले अंदर तो चलो, सब बताऊँगी।” यह कहते हुए वो ड्राइंग रूम में आ गये। जैसे ही वह सोफे पर बैठने को हुआ तो देखा सोफा चेयर बगैर गद्दी-कुशन के ऐसे लग रहे थे जैसे कोई व्यक्ति अचानक अपने सिर के बाल उतरवा दे तो उसकी शक्ल पहचानने में नहीं आती है। ठीक उसी तरह सोफा चेयर भी दीपांशु को पहचानने में नहीं आ रहे थे। उसकी बदली शक्ल का कारण उसने जानना चाहा।

 

“गीतांजलि सोफा चेयर से गद्दी क्यों हटा दिये?”

 

“यही तो मैं तुमसे पूछना चाहती हूँ की मुझे ऐसा करने की नौबत ही क्यों आयी।”

 

“क्या मतलब?”

 

“तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?”

 

“क्या पहले नहीं बताया? सीधे-सीधे क्यों नहीं बताती, पहेलियाँ क्यों बुझा रही हो?”

 

“मैं ये पूछना चाहती हूँ कि ‘भाईचारा अपार्टमेंट’ में कोई चमार अपने परिवार के साथ रहने आया है। इस बारे में तुम्हें तो कम से कम मालूम ही होगा, क्योंकि भाभी जी सुरेश मिश्रा बता रहीं थीं। वह लेखक व पत्रकार भी है। तुम्हारा रिश्ता लेखक व पत्रकारों से रात-दिन पड़ता रहता है।”

 

“हाँ, आया तो है।इसमें खास बात क्या थी जो मैं तुम्हें बताता।” दीपांशु ने सामान्य हो कर जवाब दिया।

 

“लो एक चमार हमारे बीच रहे और ये कह रहे हैं कि कुछ ख़ास बात ही नहीं है। पत्रकारिता क्या करने लगे, माँ-पिताजी के सिखाये धर्म-कर्म सारे संस्कार भूल गये।” गीतांजलि ने थोड़ा खिसिया कर कहा।

 

दीपांशु ने अब गंभीर हो कर और धैर्य से पूछा–तुम पहले आराम से बताओ–ऐसा कौनसा पहाड टूट गया उस चमार के आने से। क्या ‘अपना भारत’ अखबार में भाईचार अपार्टमेंट में एक चमार के आने का मेनलीड बनाऊँ। दीपांशु की मजाकिया बात से गीतांजलि और परेशान हो गई थी। झूँझलाहट उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। वह अपने को संतुलित करते हुए बोली–

 

“मेरा मतलब यह नहीं था। तुम मेरी बात समझने की कोशिश नहीं कर रहे हो। मैं संस्कारों की बात कर रही थी।”

 

दीपांशून ने अब बात करने का लहजा बदल लिया था। गीतांजलि को संबोधित करते हुए बोला–“गीते तुम चिंता मत करो। मैं धर्म-कर्म संस्कार सब जानता हूँ और अच्छी तरह उनका पालन करता हूँ।”

 

“आज मिसिज मिश्रा और मिसिज नितिन दुबे के साथ उस चमार लेखक की बीवी घर आ कर चाय-नाश्ता करके हमें भ्रष्ट कर गयी। मुझे उसकी जाति के बारे में पता नहीं था। कम से कम उसे तो चाय पीते लाज आनी चाहिए थी। हमारी बिरादरी की सारी बातें सुनती रही। अच्छा हुआ मिसिज मिश्रा ने घर जा कर इंटरकॉम फ़ोन से मुझे बताया–“गीतांजलि, तुम्हें नीता के सामने ऐसे नहीं बोलना चाहिए था।’ पहले तो मैं समझी नहीं । यह सुन कर पूछा–‘एसे क्या नहीं बोलना चाहिए? उन्होंने बताया, ‘वह यानी नीता जाति से चमार है। उसे तुम्हारे द्वारा जातिभेद का संस्मरण सुनना बुरा लग रहा होगा।’ मैंने कहा– ‘दीज अरे रूटिन टॉक’। यह तो हमारी रोज की बातचीत है। उसे बुरा लग रहा होगा, लगता रहे, इससे हमें क्या? हमारे बीच उसको बैठना ही नहीं चाहिए था।” आक्रोश में उसने अपनी बात की सफ़ाई देते हुए कहा।”

 

इधर उदयवीर प्रसाद ने अपने परिवार के साथ ‘भाईचारा अपार्टमेंट’ में यह सोच कर फ्लैट किराए पर लिया था कि यह कुछ लेखक-पत्रकार परिचित हैं। उनके बीच रहने पर कुछ पारिवारिकता का माहौल मिलेगा।       

 

अभी महीना भर भी नहीं हुआ था। उदयवीर की पत्नी का जादातर समय घर को व्यवस्थित करने में व्यतीत होता था। आज वह कुछ फ्री हुई थी। दोपहर का ख़ाना बनाकर बच्चों को खिलाकर उसने सोचा, अपार्टमेंट में नीचे घूम कर आयें।

 

‘भाईचारा अपार्टमेंट’ में अभी भी कुछ निर्माण का कार्य बचा हुआ था, इसलिए पूरे दिन जनरेटर की आवाज कानों को बहरा बनाने का कार्य कर रही थी! क्योंकि नीता की बालकनी वहीं खुलती थी, जिधर अपार्टमेंट का निर्माण कार्य चल रहा था, इसलिए आवाज उधर कुछ ज़्यादा आती थी। यहाँ क़रीब 10 मेम्बर और 8-10 मजदूरों के परिवार रह रहे थे।

 

पूरे दिन व्यस्तता के बाद वह अपार्टमेंट में घूमने और सर्दी कम करने के इरादे से जैसे ही फ्लैट से निकली, मिसिज दुबे और मिसिज मिश्रा सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए मिल गयीं। नीता को देखते ही मिसिज दुबे बोली–

 

“भाभी जी फ्री हैं या क्या कहीं जा रहीं हैं?”

 

“नहीं, कहीं नहीं जा रही। ऐसे ही बोर हो रही थी। बच्चों को घुमाने निकली हूँ।” नीता ने सहजता से प्रतिउत्तर में कहा।

 

“दीपांशु पाठक के यहाँ चल रही हैं क्या?” मिसिज दुबे ने नीता से पुनः पूछा।”

 

“किसी काम से जा रही हैं या कोई पार्टी-वार्टी है।” नीता ने जानना चाहा और सोचने लगी, कहीं मेरा आना उन्हें अवांछित न लगे।

 

“”नहीं ऐसे ही कुछ गपशप करेंगे।”

 

नीता सोचने लगी–इस बहाने अपार्टमेंट में कुछ और लोगों से परिचय का दायरा बढ़ जाएगा। जहाँ व्यक्ति रहता है, वह चाहता है कि अधिक से अधिक लोगों से परिचय बढ़ाये। वक्त बे वक्त पर एक दूसरे के काम आते हैं। यह सोच कर उसने हाँ कर दी और तीनों अपने ब्लाक से निकल कर पड़ोस के ब्लाक में दीपांशु पाठक के फैक्ट पर जा पहुचीं। डोर बैल मिसिज मिश्रा ने दबायी। बैल की आवाज सुन कर 30-32 वर्षीय महिला ने झाँककर देखा। नीता उसे देखकर समझ गयी कि ये दीपांशु पाठक के घर जा रही हैं। यह उनकी पत्नी गीतांजलि है। हालाँकि मिसिज दुबे के घर उसकी एक संक्षिप्त बाई फेस मुलाकात हो चुकी थी। एक दूसरे के घर हर रोज समय गुजरने व अपनी सोसाइटी के समाचार प्रचार-प्रसार करने की उनकी आदत बन चुकी थी। समय गुजारू सहेलियों को देखते ही गीतांजलि के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव उभर आये थे। वह अत्यंत प्रसन्नता से बोली–“आइए, आइए भाभीजी।” कह कर तुरंत दरवाजा खोला। मिसिज दुबे और मिसिज मिश्रा ने अपने चप्पल-जूते ड्राइंग रूम के दरवाजे के बाहर उतारे। नीता ने भी ऐसा ही किया।

 

फ्लैट के अंदर प्रवेश करते ही वे ड्राइंग रूम में रखे सेवन सीटर कीमती सोफ़े पर बैठ गयी। हाय, हैलो और नमस्ते के उपरांत गपशप शुरू हुई। नीता को मन ही मन एक कहावत याद आयी कि ड्राइंग रूम को खूब साफ सुथरा रखना चाहिए, क्योंकि वह घर का आईना होता है। वह यह सोच ही रही थी कि उसने देखा कि सोफे को फैंसी कुशनों से सजाया गया था। बराबर में दीवान रखा था, जिस पर कायदे से दो कीमती बेल्वेट के कवर लगे मसनद रखे थे। सामने की दीवार पर बड़ा एल सी डी कलर टी वी टंगा था, जिससे ड्राइंग रूम की भव्यता में चार चाँद लग रहे थे। साथ ही उनकी अभिजातीय संपन्नता का बोध भी हो रहा था।

 

ड्राइंग रूम में एक बुकसेल्फ के बिना आधुरा-सा लगता है।तभी नीता की नजर ड्राइंग रूम के साइड में एक स्टडी मेज और एक-दो चेयर की तरफ़ गयी। वहीं  साइड में एक पुस्तकों की रैक रखी थी। वह दीपांशु पाठक की स्टडी रूम का लग रहा था। पुस्तकों की अलमारी में मार्क्स, ऐंगल्स, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, और कुछ किताबें दलित विषय की भी रखी थीं, जिनमें ‘चिंतन की परंपरा और हिन्दी दलित साहित्य’, ‘हाशिए से बाहर’, ‘पहली दलित शिक्षिका और स्त्री विमर्श’, ‘प्रेमचंद की नीली आँखें’, ‘जूठन’, ‘सलाम’, ‘दलित कथा साहित्य: अवधारणा और विधियाँ’, ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’, और ‘मुर्दहिया’ इत्यादि पर नजर भी उसकी पड़ी। बराबर में रामचरितमानस, गीता और ‘कलि कथा: वाया बाईपास’, ‘सारा आकाश’, रंगभूमि’, और ‘गोदन’ इत्यादि पुस्तकें भी अपना स्थान बनायें हुई थीं।

 

नीता को दलित आलोचना और साहित्य की पुस्तकें देखकर मन ही मन प्रसन्नता हुई।वह यह सब देख और सोच ही रही थी। गीतांजलि काँच के तीन गिलासों को एक ट्रे में रख कर पानी लायी।हम तीनों ने अपना-अपना पानी का गिलास ले लिया था। मिसिज मिश्रा मजाकिया अन्दाज में बोली– “लगता है आज भई साहब घर पर हैं, इसलिए गीतांजलि आज देर से नहाई है।”

 

“नहीं।”

 

“वह तो ऑफिस चले गये। पिंकी नाना के साथ घर गयी है। अकेली हूँ। दीपांशु की तबियत थोड़ी खराब थी, इसलिए ‘अपना भारत’ अखबार ऑफिस देर से गये और फिर इस समय किसी बात की जल्दी तो नहीं, जब चाहो नहाओ, खाओ।”

 

गीतांजलि की हाँ में हाँ चारों ने मिलायी।

 

उसके बाद वह काँच की एक प्लेट में लड्डू रख कर लायी और बराबर में रखे सोफा चेयर में बैठ गयी। नीता गीतांजलि के घर पहली बार आयी थी। वैसे ये सोसाइटी भी उनके लिए नयी ही थी। पहले से चूली मिली तीनों सखियों की गपशप वह गौर से सुन रही थी। आवश्यकता पड़ने पर एक-दो बातें कह देती थी।ठहाका पड़ने पर चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखेर देती थी।

 

लड्डू की प्लेट को आगे बढ़ाते हुए गीतांजलि बोली–

 

“भाभीजी आप तो लीजिए।” नीता की तरफ मुखातिब होकर कहा–“ये भाभीजी नयी आयी हैं तो औपचारिक हो सकती हैं। आप तो कम से कम औपचारिक मत बनिए।”

 

मिसिज मिश्रा ने एक लड्डू उठाते हुए कहा–”नहीं ऐसी बात नहीं है।मैं ठीक ही ले रही हूँ।”

 

मिसिज दुबे ने सोचा, आज कोई मजाक और गपशप शुरू नहीं हो रही है।यह सोचते हुए मौका गंवाना उचित नहीं समझा और झट से बोली–

 

“भाभीजी आज कल ठीक से ले रही है, दे नहीं रही है।” यह सुनकर महिला बैठक में ठहाकों के बीच झेंप और मूड फ्रेश, सामंजस्य का माहौल बन गया। मिसिज मिश्रा थोड़ी सकुचायीं और जवाब के लिए मौके का इंतजार करने लगीं। ठहाकों के बाद फिर मौन वातावरण में गीतांजलि ने सवाल किया–

 

“भाभीजी, कल 31 दिसंबर को होने वाली लिट्टी पार्टी का क्या हुआ? पॉशपांड क्यों हो गयी।”

 

यह सुन कर मिसेज दुबे बोलीं –”मुझे लिट्टी पार्टी पसंद तो बहुत है, किंतु अपव्यय हम सहन नहीं कर सकते। पहले लिट्टी की पार्टी में बुलाया गया 100 लोगों को, 50 लोग ही आये।” 

 

मिसिज मिश्रा बोली “लिट्टी की पार्टी तो होनी चाहिए।नये साल पर नहीं हो पायी तो किसी छुट्टी वाले दिन कर लेंगे। अबकी बार इतना ज्यादा नहीं बनायेंगे कि बर्बाद हो।”

 

गीतांजलि ने पूछा— “भाभी जी, आपकी काम वाली कितना लेती है?”

 

“सिक्स फिफ्टी मात्र झाड़ू और पोंछा का।”

 

“आप सत्यवती से ही करती हैं या किसी और से?”

 

“नहीं उसी से।”

 

“एक और काम वाली औरत थी। ऊपर रह रहे कुछ लोगों ने उससे काम कराने से मना कर दिया था। वह बता रही थी—वह लोग कह रहे थे कि हम तुमसे कैसे काम करा सकते हैं, जिसकी परछाईं से भी हमें परहेज है। भाभी जी, पता है वह तुनक कर मुझसे बोली—“बीबी जी मैंने उनसे बोल दियो, यदि तुमको हम अपने को ठाकुर, बावन या बनिया बता देते तौ काहा कर लेते। हम झूट नांये बोलत, काम करावौ, तुम्हारी मर्जी है।”

 

मिसिज दुबे ने अपनी मन की बात अपनी सहेलियों में बाटनी चाही। वह यही सोच के और बोलीं—“भाभी जी, उसकी आवाज में इतनी कड़क थी, ऐसे लग रहा था जैसे मैंने ही उसे काम कराने ने से मना कर दिया है। मैंने उसे डाटा कि मुझसे किसी के घर की बात मत कहा कर और ना मेरे घर की बात किसी और से कहना। यह मुझे सबसे बुरा लगता है। हमें इस बात से लेना देना नहीं है कि तू किस जाति की है, पर हम अभी काम नहीं कराएंगे। भाभी जी, आँखों देखी मक्खी तो नहीं निगली जाती है, और मुझसे तो बिलकुल ऐसा नहीं हो सकता।”

 

मिसिज दुबे बोली—“अब इस तरह की पाखंडी बातें करना ठीक नहीं, क्योंकि हम लोग महानगरों में रहते हैं। वहाँ बचाव संभव भी नहीं हैं। सफाई से रहना चाहिए।”

 

मिसिज मिश्रा मिसिज दुबे की बात सुनकर बोली—“भाभी जी, देखने में जो साफ-सुथरे होंगे,यह जरूरी नहीं है कि हम सबको अपने किचिन में घुसा लें। दूर मत जाइए, हमारे ही ब्लॉक में ही नीचे वालों फ्लैट में गयी। वह चाम, भंगी और खटीक भी नहीं हैं, किसी पिछड़ी जाति के हैं। मैं उसके कमरे में बैठी थी। उनके बाथरूम का दरवाजा खुल गया था। वहाँ मुझे दो मिनट बैठना मुश्किल हो गया। घर का सब सामान तितर-बितर पड़ा था। बैड की चादर आधी जमीन पर लटक रही थी। कुर्सियाँ टेढ़ी-मेढ़ी पड़ी थीं। गंदे और साफ कपड़े इधर-उधर फैले पड़े थे। देखने में बहुत बड़ा लगा रहा था। मैं ऐसे घर में दो मिनट नहीं रुक सकती।”

 

मिसिज मिश्रा की बात सुनकर मिसिज दुबे को बहुत अजीब लगा। वह सोचने लगीं—मुझे इन सब बातों का एहसास पहले क्यों नहीं हुआ।यह मानवता के विरुद्ध है। वह यह सब सोच ही नहीं रही थीं। तभी उनको चुप बैठे देख कर मिसिज पाठक और मिसिज मिश्रा बोली—

 

“भाभी जी, किसी बात की चिंता में पड़ गयी या भाई साहब की याद सताने लगी।”

 

“नहीं ये बात नहीं है।”

 

“तब आप चुप क्यूँ बैठी हैं?”

 

“मैं यह सोच रही थी कि एक थी मदर टैरेसा जो जाति से अस्पशयता तो दूर, कुष्ठ रोगियों की भी सेवा-शुश्रूषा करती थीं। मैं क्रिश्चियन स्कूल में पढ़ी, फिर कॉलेज भी संयोग से क्रिश्चियन ही मिल गया। इसलिए मुझे ये सब बातें अजीब लगती हैं। नितिन दुबे भी मार्क्सवादी विचारधारा के हैं।इसलिए छूत-छात  जैसी बातें हरारे यहाँ कभी नहीं होतीं। हमने तो मानवता का सम्मान करना सीखा है।”

 

गीतांजलि उठते हुए बोली—

 

“मैं अभी आयी।”

 

जब वह वापस आयी तो उसके हाथों में एक ट्रे थी। उसमे चार कप चाय, नमकीन और बिस्कुट थे। सेंट्रल टेबल पर चाय की ट्रे रख कर स्वयं भी बराबर रखे सोफा चेयर पर बैठ गयी। आदर भाव से सबकी तरफ चाय बढ़ाते हुई बोली—

 

“भाभी जी, मैं जिसके साथ खा-पी नहीं सकती या जिसके घर खा नहीं सकती, उसके साथ कभी दोस्ती भी नहीं करती।” कहते हुए उसने नमकीन और बिस्कुट की प्लेटें सबकी तरफ़ बढ़ाते हुए फिर कहा—

 

“लीजिए भाभी जी, आप औपचारिकता क्यों दिखा रहीं है?” फिर नीता की तरफ मुखातिब होकर प्लेट बढ़ा कर बोली—

 

“भाभी जी, आप औपचारिकता छोड़िए, अब तो आप सोसाइटी मेम्बर हैं और हमारी दोस्त भी। अब तक हमारी बैठक में तीन सखियाँ होतीं थीं। आज से हम चार हो गयी हैं।” यह सुनते ही सबने श्यौर-श्यौर कह कर गीता की बात का समर्थन किया।

 

“हाँ-हाँ मैं ले रही हूँ।” यह कहते हुए नीता ने बिस्कुट उठा लिया, और उसकी बातों पर सोचने लगी।

 

गीतांजलि की सामने वाली चेयर पर मिसिज दुबे बैठी थीं। गीतांजलि उनकी तरफ देख कर बोली—

 

“भाभीजी आप बुरा मत मानिए, लेकिन मैं किसी का नाड़ा लटकते हुए नहीं देख सकती। में काफी देर से देख रही हूँ। अब रहा नहीं गया इसलिए कह दिया।”

 

मिसिज दुबे आई तो बन-ठन के किंतु नाड़ा लटकने की बात से थोड़ी सकुचायीं और नाड़ी को अंदर करते हुए ऐसे बोलीं मानों सरकार ने उन पर अवांछित चार्ज लगा दिया हो और वह अपना स्पष्टीकरण देते हुई बोलीं—

 

“इसमें बुरा लगने की क्या बात है? थैंक्यू, आपने बता दिया। बता देना तो ठीक रहता है। क्या फ़ायदा दस लोग और देखें और हँसें। बता देने से कुछ बिगड़ता तो है नहीं। वैसे में प्रोपर्ली अंदर ही डालके रखती हूँ।”

 

उनकी बात सुनकर मिसिज मिश्रा अकेले ही हँसी जा रही थीं। उन्हें देख कर सभी ने मुस्कुराते हुए पूछा—

 

“क्या बात है भाभी जी, आप अकेले ही हँस रही हैं।” सबकी बात सुनके वे और जोर से हँस पड़ीं। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। सभी सोचने लगीं ऐसी क्या बात है जो ये अकेले ही हँस रही हैं। वे ज़ोर से हँसते हुए चार-पाँच मिनट बाद बोलीं—

 

“भाभीजी प्रोपर्ली अंदर ही डाल कर  रखती हैं।” उनकी बात सुनके ठहाकों से फ्लैट गूंज उठा।

 

चाय की आखिरी चुस्कियाँ लेते हुए गीतांजलि ने अपने घर आये उस नये मेहमान का संस्मरण सुनाया—

 

“भाभी जी, पिछले सप्ताह हमारे गाँव से एक धोबी आया। हम सब परेशान थे। क्या करें? घर पर तो मम्मी इन छोटी जात वालों का गिलास अलग रखती हैं।एक बार क्या हुआ कि पिताजी स्टील के गिलास का एक नया सैट  लेकर आये थे। मकरसंक्रांति के अगले दिन धोबी प्रेस के कपड़े लेने आया तो सर्दी बहुत थी। अम्मा ने सोचा—चाय बनी ही है, इसे भी दे देती हूँ। उस नये गिलास में चाय ले कर यह सोच कर गयीं कि वह अपना गिलास सहित चाय या खिचड़ी मेरे लिए ही लायी हैं। यही सोच कर गिलास पकड़ने के लिए जैसे ही उसकी उंगलियाँ टच हुई, अम्मा इतनी जोर से चीखीं कि एक बार तो हम सबको लगा कि आज उन्हें किसी जहरीले कीड़े ने डंस लिया है।कमरे से निकल कर आये तो वह अच्छी-भली खड़ी धोबी को डांट रही थीं—“अब तू यह गिलास ले जा। अब ये बेकार हो गया।”

 

“भाभी जी उसी धोबी का लड़का हमारे घर आ गया। वह पढ़ा-लिखा भी था। यदि उसे खाना नहीं खिलाओ तो भी बुरी बात है। बल्लू बोला—‘भाभी अब क्या करोगी?’ 

 

इधर दीपांशु भी व्यंग कस रहे थे—

 

“तुम्हारा भाई आया है। ख़ाना तो खिला ही दो। नहीं तो वह बेचारा क्या सोचेगा?

 

भाभी जी, मैं बड़ी असमंजस्य कि स्थिति में फँस गयी। क्या करूँ क्या नहीं। तब मुझे याद आया कि हमारे पास एक प्लास्टिक की प्लेट और कटोरा पड़ा था जिसमें हम अपने प्यारे डॉनल को खाना खिलाते थे। बेचारा बहुत वफादार निकला । रात-भर पूरे घर में इधर से उधर घूमता रहा।रात में किसी पड़ोसी की भी हिम्मत नहीं होती थी, घर में आये। किसी की आहट पाते ही वह भौंक-भौंक कर पूरा घर भर देता था। हमारी सास का वह बहुत प्यारा था। उसके मरने के बाद उसकी याद में उन्हीं ने उसके बर्तन संभल कर रखे थे। मैंने वे बर्तन निकले, उसी में परोस कर उसे ख़ाना खिलाया।”

 

उसकी बात सुन कर मिसिज मिश्रा बीच-बीच में मुस्कुरा रही थीं और गीतांजलि को चुप रहने का संकेत भी कर रही थीं। गीतांजलि अपनी बात को कुछ क्षण का विराम देकर बोली—

 

“भाभी जी, अच्छा आप भी ऐसा ही करती हैं। यह सब मानती हैं न।” उन्होंने पुनः चुप करना चाहा और बोली—

 

“ऐसी बात नहीं है गीतांजलि।” वह नीता की तरफ पीठ करके बैठ गयीं, मानों यह समझना चाह रही थीं कि इस समय यह सब मत बताओ।

 

गीतांजलि ने अपना अधूरा संस्मरण पूरा करते हुए कहा—

 

“वह जाते समय बच्चों को 50-50 रुपये दे गया।घर जा कर उसने गाँव में खूब तारीफ की। जब मुझे पता चला तो मेरी तो नाक ही कट गयी। मैं पानी-पानी हो गयी। माँ-पिता जी अलग से बिगड़ रहे थे, कि तुम भले शहर चली गयी, सब भूल गयी। नियम-धरम। इन नीच जाट वालों की जगह कहाँ  है, तुम्हें नहीं मालूम। इधर वह लड़का गाँव में मिला तो बहुत खुश था और बोला—

 

‘जिज्जी, शहर गया तो मैं फिर आऊँगा।’ मैंने उसे तुरंत मना किया, “नहीं अब कभी नहीं आना मेरे यहाँ।”

 

उसकी बात सुनकर नीता को लगा, गीतांजलि उसे ही कुत्ते की प्लेट में ख़ाना खिला रही है। उसे चक्कर आने लगे। उसका मन अंदर से घबराने लगा, दर्द से सिर फटने लगा। उसे लगा उसके कान बेहरे हो गये हैं। उसके पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी। वह दर्द से चीखना चाहती थी। उसे लगा किसी ने मुँह में कपड़ा ठूँस दिया है और लगातार उसके गाल पर चाँटे पड़ रहे हैं। उसने अपने हाथों से कनपटी छू कर देखीं। वे गर्म हो गयी थीं। उसे ‘राष्ट्रीयता’ अखबार में सेंटर पेज के इंचार्ज श्री दया शंकर का एक कथन याद आने लगा। जब वह अपने पति के साथ ‘भाईचारा अपार्टमेंट’ में मकान देखने आयी थीं, तब वह कह रह थे—

 

“प्रसाद जी, हमारी सोसाइटी में कोई पाखंडी नहीं है। सभी डेमोक्रेटिक विचारों के हैं।” किंतु आज उसके सामने जातिभेद का जीता-जागता उदाहरण पेश किया जा रहा था। वह प्रतिकार करने ही वाली थी। तभी काफी देर से चुप-चाप सुन रही मिसिज दुबे बोलीं—

 

“गीतांजलि, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। आखिर जानवर जानवर होता है और इंसान जाति से छोटा बड़ा नहीं होता। हमने तो मिशनरी स्कूल में सीखा है कि इंसान का अपमान करना सबसे बड़ा पाप होता है। इंसान ईश्वर की अमूल्य रचना है। उसे सताने वाले को ईश्वर कभी माफ नहीं करता।” मिसिज दुबे की बात का नीता ने भी समर्थन करते हुए कहा—

 

“भाभी जी, आप ठीक कह रही हैं। अच्छे भले सफाई से रहने वाले व्यक्ति के साथ अस्पृश्यता करना ग़लत बात है। अस्पृश्यता तो उससे करनी चाहिए जिससे हमें संक्रमण रोग होने की आशंका हो।”

 

गीतांजलि इन दोनों की बात सुन कर मन ही मन कुढ़ गयी  और सोचने लगी—

 

‘ये भले ही मिशनरी स्कूल में पढ़ी। हमीं को पाप-पुण्य की बातें समझा रही है। जैसे हमें कुछ पता ही नहीं है।’ उसको लगा जैसे हमारी जाति में जन्म लेकर और पल कर भी इसे अपने राष्ट्र की उन्नति कि कोई चिंता नहीं। उसने सोचा, इसे कस कर डाँट लगाऊँ। आज ही पहली बार आयी है, नहीं तो में इसे ऐसा सबक सिखाती कि जिन्दगी भर याद रखती। नये आगन्तुक का लिहाज करती हूँ। वह मन ही मन कुछ बोल रही थी। बराबर बैठी मिसिज मिश्रा बोलीं—

 

“क्या सोच रही हो गीतांजलि।”

 

“नहीं, कुछ नहीं, ऐसे ही कुछ सोच रही थी।”

 

 “क्या हमसे भी कुछ छुपाने लगी हो।” उन्होंने चुटकी ली।

 

“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। जो बात मुझे सही लगती है, वह मैं साफ दिल से कह देती हूँ।” यह कह कर उसने अपना मन हल्का किया।

 

मिसिज दुबे  बोली— “यदि यही बात है तो हमें रेस्टोरेंट और होटलों में खाना नहीं खाना चाहिए। दिस इज रांग व्यू।”

 

“लेकिन भाभी जी, आँखों देखी मक्खी को आप निगल सकती हैं क्या?” गीतांजलि ने कहा।

 

“गीतांजलि आखों देखी मक्खी कोई नहीं निगल सकता। विचारों को फ्रैश रखना अलग बात है।” 

 

मिसिज मिश्रा बोली—“छोड़िए इन सब बातों को। कुछ और गपशप करते हैं। आपको मालूम है, नंदनी शर्मा को इसी माह में बच्चा होने वाला है। बताओ क्या होगा, लड़का या लड़की। मैंने उससे कह दिया कि आपको लड़की ही होगी तो वह उदास हो कर बोली—

 

‘मुझे तो लड़की बहुत अच्छी लगती है, परंतु मेरी सास मुझे खा जाएगी।’

 

नीता चुपचाप सुन रही थी। मन ही मन वह सोचने लगी—नंदनी के न ही लड़का होगा न ही लड़की बल्कि उसके एक पंडित जन्म लेगा या पंडतानी। पर वह अपने ऊपर काबू पा गई, जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लिया। गीतांजलि कुछ सोचते हुए बोली—

 

“भाभी जी, मेरा तो मानना है कि इस देश को दो लोगों ने बिगाड़ा है, एक तो क्रिश्चियन कम्युनिटी ने। ये अपना स्कूल खोलने से पहले यह भी नहीं देखते यहाँ कौन लोग रह रहे हैं। किसको पढ़ाई की जरूरत है और किसको नहीं। दूसरे कुछ हाथ है मार्क्सवादियों का, लोगों को बिगाड़ने में। इसका कसूर ये है कि इन लोगों ने सब घाल-मेल कर दिया। बेटी का फर्क तो बचाये रखे हैं, किंतु रोटी बंधन तो तोड़ दिया।” नीता गीतांजलि की बातें सुन कर अंदर ही अंदर खीज रही थी। मन करता है कि इनसे कह दूँ कि खाक बेटी भेद बचाये रखा। हमारे समाज की सारी क्रीम देखते ही तुम्हारी जीभ ललचा जाती है। यानी हमारी काबिल बेटे-बेटियों की शादी के नाम पर हमसे छीन लेते हो। गीतांजलि और मिसिज दुबे की बात सुनकर नीता कुछ अनमनी हो गई और मौन भी। वह सोचने लगी लगी कि इन जैसे लोगों से सुधारने की उम्मीद करना बेकार की  बात है।

 

गीतांजलि ने मिसिज दुबे और मिसिज मिश्रा बेस्ट फ्रैंड्स को स्वयं फ़ोन करके सूचना दी। कल लिट्टी की पार्टी ऑर्गानाइज करने के संबंध में कल दोपहर बाहर बजे मेरे घर सब लोग इकट्ठा हो रहे हैं। आप लोग लोग भी आ जाइए।

 

इधर पुरुष साथियों को दीपांशु पाठक ने संबोधित करते हुए कहा—

 

“लिट्टी की पार्टी तो एक बहाना है एक साथ मील बैठ कर बतियाने का। कल संडे का दिन मेरी समझ से ठीक रहेगा। मैं गार्ड को बोल दूँगा। वह सब फ्लैट्स में जाकर सुबह ही सूचना दे देगा। कल दोपहर का भोजन न बनाए, स्वादिष्ट लट्टी का सामूहिक भोज करेंगे। सोसाइटी में जीतने परिवार रहते हैं, सबको बता देगें कि कल दोपहर का भोजन हमारे यहाँ होगा।”

 

शाम को जब सब लोग चले गये तो गीतांजलि ने दीपांशु को डाँटते हुए कहा “क्या कह रहे थे। हम सब जितने लोग सोसाइटी में रहते हैं, सहभोज करेंगे।”

 

“हाँ, ठीक ही तो कहा।”

 

“क्या अपने-अपने घरों में बनाकर खाएँगे।”

 

“नहीं, मेरा मतलब ये नहीं।” उसने धीरे से कहा।

 

“क्या वह उदयवीर भी हमारे साथ भोज करेगा?”

 

“अरे नहीं, ऐसा नहीं होगा। हम उसे नहीं बुलाएँगे।”

 

“वह कैसे? यदि आपके इन कम्युनिस्ट साथियों को पता चल गया तो दकियानूस कह कर मजाक नहीं बनाएँगे।”

 

“मजाक तो तब बनाएँगे जब उनको पता चलेगा। उन पर अलग से बात करने की आवश्यकता ही क्या है? हम उन्हें बुलाएँगे नहीं। बिना बुलाए वे लोग आएँगे नहीं। अपने आप समझ लेंगे।”

 

नितिन दूबे और दयाशंकर आदि लोग सुबह से लिट्टी की पार्टी कि तैयारी में जुटे थे। यानी इन लोगों ने स्वयं काफ़ी लिट्टियाँ बनाई थीं। दोपहर भी अपनी पत्नी के साथ थे। तीन बीजी तक सभी लोग खाकर चले गये। दुबे जी ने बेटी कन्नू ने नीता की बेटी से पूछा—

 

“स्वीटी पार्टी में आओ।”

 

उसने जवाब दिया—“मम्मी ने कहा है, पार्टी में हमें इन्वाइट ही नहीं किया है। इसलिए हम लोग नहीं आ सकते।”

 

बच्ची की बातें दूबे जी व दयाशंकर और मिश्रा जी के कानों तक भी गयीं। वे लोग आपस में पूछने लगे— “क्या उदयवीर को निमंत्रण नहीं दिया।” सभी एक दूसरे का मुँह देख कर बोले— ‘पता नहीं, यह जिम्मेदारी तो हमारी नहीं थी।” दुबे जी ने कहा — “ये बात गलत है। सहभोज हो रहा है। एक परिवार अछूता रहे। हम कैसे क्रांति करेंगे? सहभोज का मतलब एक थाली में तो खाना नहीं है। तो फिर फर्क क्या पड़ता है? में गार्ड को अभी भेजता हूँ। उन लोगों  को बुलाकर लाये।”

 

थोड़ी दूरी पर खड़े दीपांशु पाठक साथियों की बात सुन रहे थे। पास आकर सच पर पर्दा डाल कर बोले—

 

“अरे उदयवीर नहीं आये? हमने गार्ड को भेजा था कहने के लिए कि सबको बता दे।” फिर अपने आप ही जवाब में कहने लगे—“नहीं आए तो हम क्या कर सकते हैं।”। 

 

“लेकिन उनकी बेटी तो कह रही थी कि हमें नहीं बुलाया है।” नितिन दुबे ने उनसे प्रश्न किया। वे दुबे जी की बात सुनकर चेहरे पर तनाव के साथ बोले—

 

“अरे, आप आजकल के बच्चों को क्या समझते हैं, वे हमेशा भगवान का अवतार ही बने रहेंगे। यानी बच्चे मन के सच्चे ही होते हैं। आज कल के बच्चे बड़ों-बड़ों को झूठ बोल कर बुद्धू बना देते हैं।” दीपांशु पाठक ने सबकी आखों में ऐसी धूल झोंकी कि ऐसा लगने लगा कि झूट और सच आपस में झगड़ रहे हैं। वह मन ही मन सोच कर मुस्करा  रहा था कि इसे कहते हैं—लाठी भी न टूटे और साँप भी मार जाए।

 

लिट्टी पार्टी लगभग समाप्त होने के कगार पर थी। वहाँ पार्टी के आयोजक मौजूद थे, और जो लोग बाद में आये थे, वे लोग हाथों में खाने की प्लेट पकड़े हँसी-मजाक और गपशप के साथ लिट्ठी का आनंद उठा रहे थे।

 

उदयवीर प्रसाद की बालकोनी का दरवाजा उधर ही खुलता था, जिधर पार्टी चल रही थी। उनकी बेटी स्वीटी बार-बार बालकोनी से झाँक रही थी और नीचे खड़ी कन्नू से बातें कर रही थी। कन्नू उसे नीचे बुला रही थी।तभी नीता ने ग़ुस्से में आ कर जोर से स्वीटी का हाथ पकड़ा और एक झटके से उसे कमरे में खींच कर धड़ाम से बालकोनी का दरवाजा बंद कर लिया।

 

स्वीटी के रोने की आवाज से पूरा घर भर गया।

 

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